पर शायद अँधा था मैं
आखों से नहीं बल्कि दिल से
मैं देख नहीं पाया
तुम्हारा झूट जो छिपा था
तुम्हारे हर सच के पीछे
पर शायद अँधा था मैं
आखों से नहीं बल्कि दिल से
मैं देख नहीं पाया
तुम्हारा झूट जो छिपा था
तुम्हारे हर सच के पीछे
अजीब लड़की है वो,
टूटी हुई होने के बावजूद,
वो कहती,
खुश हूँ मैं ।
अज़ान की तरह ज़हन मे गूंजने लगी हो ,
और मैं कम्बखत नमाज़ी भी नहीं.
छत पर बैठकर जो सस्ते समोसे खाये थे तुम्हारे साथ,
आजकल इन मेहेंगी महफिलों में उनकी महक तलाशता हु.
लफ्जों का काम है दिल को जुबां तक लाना.
फिर क्या फर्क पड़ता है,
की लफ्जों ने हिंदुस्तानी धोती पहनी है या विलायती कोट.
पुरानी चीज़ों मे तुम्हारी डायरी मिली मुझे आज
सोचा खोल दूँ और पढ़ लूँ तुम्हारे सारे राज़
पर मैं तहर ज़िद्दी
मुझे गुमान इतना अपनी दिल-नवाज़ी पर
वह डायरी क्या अलग बताती मुझे जो
तुम्हारी आखों मे मैं नहीं पढ़ सकता था
उस सड़क पर फिर चल पड़े?
जो इस दुनिया की कम, हमारी ज़्यादा थी.
जहाँ रात बिन दरवाज़ा ठक-ठकाए आ जाती।
और सुबह बेनिक़ाब चली जाती थी.
ये कैसा दस्तूर है इस दुनिया का?
होठों पे हंसी आती नहीं है और
माथे पर शिकन घर बना जाती है.
तुम्हरा पता पूछते पूछते,
अपने ही घर लौट आया .
खुश हो ही रहा था की,
किस्मत ने किराया बढ़ा दिया.
बाजार लगा था ख्वाइशों का,
कोई वादे बेच रहा था,
कोई कसमों की Window Shopping कर रहा था,
पर हम खाली हाथ लौट आये,
काश तुम से लेन देन करना सीख लिया होता.
हौसला था इतना कि चाँद को फलक से उतार लाते,
पर सितारों का ख्याल किया,
वो शायद हमसे ज्यादा अकेले हो जाते.